1. विरोधाभास
आखिर वह पहुंचा वहाँ
जहां पे थे सब झुके हुए
उसका अकेला तन के खड़ा रहना
सामाजिक नहीं था
अंततः उसे झुकना पड़ा ।
फिर जाना उसने
झुकने के कई फायदे
झुक कर रहने में
सहूलियत होती थी
नीचे का पड़ा उठाने में
जिसका सर पर हाथ था
उसके पाँव सहलाने में,
आंखे स्वतः ही बच जाती थी
सच से नजर मिलाने में
और आने वाले दिनों में जाना उसने
ज्यों ज्यों झुकता गया जियादा
उठता गया ऊपर..... और...... ऊपर !!!
Sunday 21 November 2010
Friday 16 April 2010
Sunday 28 March 2010
सन्नाटे का कोलाहल
जब आवाज थक कर बुझने लगती है
तब शुरू होता है सन्नाटे का कोलाहल
रात की उर्वर जमीं पर
उग आतें हैं असंख्य प्रश्न
जो दिन भर रौंदे जातें हैं सड़कों पर, जुलूसों में
हरेक के अंतर्मन में
तमाम प्रश्न सुनता है वह व्यक्ति
जो गुनता है सन्नाटे को
वह काटता है रात भर
प्रश्नों की फसल
पाने की हसरत में
नींद की थोड़ी सी जमीन
यह व्यक्ति कभी सोता नहीं
न कभी मरता है
हर युग में उग आता है
प्रश्नों के कुकुरमुत्तों के साथ
हर रात मुर्दा निरुत्तर प्रश्न
अंधकार में हो उठते हैं जीवित
जैसे कह रहें हों ढीठ
हमें काटो,चाहे मारो
हम कल फिर आयेंगे
सड़कों पर ,जुलूसों में
हर एक के अंतर्मन में
हम रक्तबीज............ !!!
जब आवाज थक कर बुझने लगती है
तब शुरू होता है सन्नाटे का कोलाहल
रात की उर्वर जमीं पर
उग आतें हैं असंख्य प्रश्न
जो दिन भर रौंदे जातें हैं सड़कों पर, जुलूसों में
हरेक के अंतर्मन में
तमाम प्रश्न सुनता है वह व्यक्ति
जो गुनता है सन्नाटे को
वह काटता है रात भर
प्रश्नों की फसल
पाने की हसरत में
नींद की थोड़ी सी जमीन
यह व्यक्ति कभी सोता नहीं
न कभी मरता है
हर युग में उग आता है
प्रश्नों के कुकुरमुत्तों के साथ
हर रात मुर्दा निरुत्तर प्रश्न
अंधकार में हो उठते हैं जीवित
जैसे कह रहें हों ढीठ
हमें काटो,चाहे मारो
हम कल फिर आयेंगे
सड़कों पर ,जुलूसों में
हर एक के अंतर्मन में
हम रक्तबीज............ !!!
सपने
यथार्थ की तपती शिलाओं से
रिसते हमारे सपने
ठहरे हुए से
जैसे ठहरी हुई नदी कोई
उफानरहित, लहरविहींन !
असमर्थ से हो चले हैं नींद के बांध
भटक रहें हैं स्वप्न
इन दिनों
थके हरे दिन के चबूतरे पर
धूल-धूसरित कैशोर्य स्वप्न ,
आ बैठते हैं अपरिचित से
शहर के शोर में मूक चुके
अनदेखे मोड़ से टकरा के चूर हो चुके
समय के समानांतर चलते हुए
कहाँ बिछड़े नहीं याद ......ढलती उम्र की साँझ-बेला में
रात का इंतजार
जब नींद होती हैं तारों के पार
सघन झुर्रियों के परत-दर-परत भीतर
खोलने बैठती हैं कांपती हथेलियाँ
सपनों का जखीरा ................
(नयी दुनिया में प्रकाशित)
यथार्थ की तपती शिलाओं से
रिसते हमारे सपने
ठहरे हुए से
जैसे ठहरी हुई नदी कोई
उफानरहित, लहरविहींन !
असमर्थ से हो चले हैं नींद के बांध
भटक रहें हैं स्वप्न
इन दिनों
थके हरे दिन के चबूतरे पर
धूल-धूसरित कैशोर्य स्वप्न ,
आ बैठते हैं अपरिचित से
शहर के शोर में मूक चुके
अनदेखे मोड़ से टकरा के चूर हो चुके
समय के समानांतर चलते हुए
कहाँ बिछड़े नहीं याद ......ढलती उम्र की साँझ-बेला में
रात का इंतजार
जब नींद होती हैं तारों के पार
सघन झुर्रियों के परत-दर-परत भीतर
खोलने बैठती हैं कांपती हथेलियाँ
सपनों का जखीरा ................
(नयी दुनिया में प्रकाशित)
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