वे और तुम
उनकी नींद बढ़ गई है
तुम सोना कम कर दो
उनकी प्यास बढ़ गई है
तुम पीना कम कर दो
उनकी भूख बढ़ गई है
तुम कुछ नहीं कर सकते
वे शिकार ढूंढ़ लेंगे
(जनपथ में प्रकाशित )
Sunday 28 March 2010
सन्नाटे का कोलाहल
जब आवाज थक कर बुझने लगती है
तब शुरू होता है सन्नाटे का कोलाहल
रात की उर्वर जमीं पर
उग आतें हैं असंख्य प्रश्न
जो दिन भर रौंदे जातें हैं सड़कों पर, जुलूसों में
हरेक के अंतर्मन में
तमाम प्रश्न सुनता है वह व्यक्ति
जो गुनता है सन्नाटे को
वह काटता है रात भर
प्रश्नों की फसल
पाने की हसरत में
नींद की थोड़ी सी जमीन
यह व्यक्ति कभी सोता नहीं
न कभी मरता है
हर युग में उग आता है
प्रश्नों के कुकुरमुत्तों के साथ
हर रात मुर्दा निरुत्तर प्रश्न
अंधकार में हो उठते हैं जीवित
जैसे कह रहें हों ढीठ
हमें काटो,चाहे मारो
हम कल फिर आयेंगे
सड़कों पर ,जुलूसों में
हर एक के अंतर्मन में
हम रक्तबीज............ !!!
जब आवाज थक कर बुझने लगती है
तब शुरू होता है सन्नाटे का कोलाहल
रात की उर्वर जमीं पर
उग आतें हैं असंख्य प्रश्न
जो दिन भर रौंदे जातें हैं सड़कों पर, जुलूसों में
हरेक के अंतर्मन में
तमाम प्रश्न सुनता है वह व्यक्ति
जो गुनता है सन्नाटे को
वह काटता है रात भर
प्रश्नों की फसल
पाने की हसरत में
नींद की थोड़ी सी जमीन
यह व्यक्ति कभी सोता नहीं
न कभी मरता है
हर युग में उग आता है
प्रश्नों के कुकुरमुत्तों के साथ
हर रात मुर्दा निरुत्तर प्रश्न
अंधकार में हो उठते हैं जीवित
जैसे कह रहें हों ढीठ
हमें काटो,चाहे मारो
हम कल फिर आयेंगे
सड़कों पर ,जुलूसों में
हर एक के अंतर्मन में
हम रक्तबीज............ !!!
सपने
यथार्थ की तपती शिलाओं से
रिसते हमारे सपने
ठहरे हुए से
जैसे ठहरी हुई नदी कोई
उफानरहित, लहरविहींन !
असमर्थ से हो चले हैं नींद के बांध
भटक रहें हैं स्वप्न
इन दिनों
थके हरे दिन के चबूतरे पर
धूल-धूसरित कैशोर्य स्वप्न ,
आ बैठते हैं अपरिचित से
शहर के शोर में मूक चुके
अनदेखे मोड़ से टकरा के चूर हो चुके
समय के समानांतर चलते हुए
कहाँ बिछड़े नहीं याद ......ढलती उम्र की साँझ-बेला में
रात का इंतजार
जब नींद होती हैं तारों के पार
सघन झुर्रियों के परत-दर-परत भीतर
खोलने बैठती हैं कांपती हथेलियाँ
सपनों का जखीरा ................
(नयी दुनिया में प्रकाशित)
यथार्थ की तपती शिलाओं से
रिसते हमारे सपने
ठहरे हुए से
जैसे ठहरी हुई नदी कोई
उफानरहित, लहरविहींन !
असमर्थ से हो चले हैं नींद के बांध
भटक रहें हैं स्वप्न
इन दिनों
थके हरे दिन के चबूतरे पर
धूल-धूसरित कैशोर्य स्वप्न ,
आ बैठते हैं अपरिचित से
शहर के शोर में मूक चुके
अनदेखे मोड़ से टकरा के चूर हो चुके
समय के समानांतर चलते हुए
कहाँ बिछड़े नहीं याद ......ढलती उम्र की साँझ-बेला में
रात का इंतजार
जब नींद होती हैं तारों के पार
सघन झुर्रियों के परत-दर-परत भीतर
खोलने बैठती हैं कांपती हथेलियाँ
सपनों का जखीरा ................
(नयी दुनिया में प्रकाशित)
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