Thursday 10 September 2015

अक्षर भी पहचान है

हमारे सभ्य होने का एक मापदंड
अक्षर भी है
अक्षर है हमारे विशिष्ट होने की पहचान
जिस पहचान की जुगत में
शामिल है हमारे वर्षों की तपस्या
हमने साधा है अपनी अंगुलियों को
कलम को स्याही में नींब भर डुबोना
शब्द गढने के क्रम में
संतुलन का मतलब जाना है
शब्द गढने के क्रम में
हमने यह भी जाना है
कि जब एक अक्षर सुंदर बनता है
तभी शब्द बनते हैं सुंदर
और चमकने लगता है पूरा पृष्ठ
सुंदरता की आभा से
इन दिनों
जब छूते ही उग आते हैं स्क्रीन पर
हमशक्ल से अक्षर
अपनी पहचान खोने लगती है
मैं संजोती हूं पिता के अक्षर
उनकी डायरियों में
मां के अक्षरों में देखती हूँ
एक बीती हुई  लड़की को
जो अपने बिगड़े अक्षरों के दुख से
उबर नहीं सकी
दादा परदादाओं के अक्षर
ज़मीन के कागज़ातों में
दबी है खरीदारों की दराजों में
अक्षरों की अनोखी दुनियां के
विस्मृत होने से पहले
कुरेदती हूं पन्नों पर बार बार
अपनी सधी ्ंअंगुलियों  से
भूले बिसरे जाने पहचाने ्अक्षर.