Tuesday 27 November 2007

(साहित्यिक पत्रिका "वागर्थ" द्वारा पुरस्कृत कविता)
मैं तोड़ती पत्थर
इलाहाबाद क्या,
देख लो
कहीं भी
किसी भी पथ पर
सदियों से तोड़ती रही
निरंतर
मैं अकिंचन
दिख गई थी एक कवि को
वर्षों पहले
जिसने अपनी कलम-तूलिका से
किया था मेरे हाव-भाव
और
यौवन को चित्रित
कागज के कैनवास पर
धूप में जलते तन पर
पड़ी स्याही की कुछ बूंदें
पर
बदल सका मेरा कल
भुला दी गई मैं
अगले ही पल
रची गई कितनी बार मैं
मेरे हालात रचने वाले को
मिलते गए पुरस्कार
पर
मैं आज भी अपने कार्य में रत
जबकि यौवन भी नहीं साथ
बस हथौड़ी लिए कांपते हाथ
बदल-बदल कर पथ
सदियों से निरंतर
अब-भी
मैं तोड़ती पत्थर !

Wednesday 21 November 2007

मुश्किल है

वोउसके इंतजार में
टकटकी लगाएटिकी है दीवार से
जोचला गया अचानक
रोती यशोधरा-सी छोड़कर
है फिर वही कहानी
आंचल में दूध, आंखों में पानी
परअबकी नहीं आसार दुर्भाग्य के
सौभाग्य में बदल जाने की
निकले हुए सिद्धार्थ के
गौतम बन जाने की
त्याज्य यशोधरा से भिक्षा-धन पाने की
तथागत की भार्या होने या
इतिहास दोहराने की
कोई कह दे उसे नहीं आएगा वो
कोई पीपल की छांव
नहीं पाएगा वो
मुमकिन हैउसे निला होगा
सहारा नक्सलवाद का
मिली होगी बंदूक या
साथ आतंकवाद का
लेकिन नामुमकीन है उसका
इस हवा से बच पाना
चलती गोलियों का कहीं
बन गया होगा निशाना
फैला है जहां चारों तरफ
तिलिस्मी जंजाल
जमीं के नीचे से जहां
मिलते हैं नर-कंकाल
यही विडम्बना है आज
उसका घर लौट आना
मुश्किल है
सिद्धार्थ का गौतम बन जाना
मुश्किल है !
----'vagarth'(november) men prakashit-------------------------------------------------