Thursday 10 September 2015

अक्षर भी पहचान है

हमारे सभ्य होने का एक मापदंड
अक्षर भी है
अक्षर है हमारे विशिष्ट होने की पहचान
जिस पहचान की जुगत में
शामिल है हमारे वर्षों की तपस्या
हमने साधा है अपनी अंगुलियों को
कलम को स्याही में नींब भर डुबोना
शब्द गढने के क्रम में
संतुलन का मतलब जाना है
शब्द गढने के क्रम में
हमने यह भी जाना है
कि जब एक अक्षर सुंदर बनता है
तभी शब्द बनते हैं सुंदर
और चमकने लगता है पूरा पृष्ठ
सुंदरता की आभा से
इन दिनों
जब छूते ही उग आते हैं स्क्रीन पर
हमशक्ल से अक्षर
अपनी पहचान खोने लगती है
मैं संजोती हूं पिता के अक्षर
उनकी डायरियों में
मां के अक्षरों में देखती हूँ
एक बीती हुई  लड़की को
जो अपने बिगड़े अक्षरों के दुख से
उबर नहीं सकी
दादा परदादाओं के अक्षर
ज़मीन के कागज़ातों में
दबी है खरीदारों की दराजों में
अक्षरों की अनोखी दुनियां के
विस्मृत होने से पहले
कुरेदती हूं पन्नों पर बार बार
अपनी सधी ्ंअंगुलियों  से
भूले बिसरे जाने पहचाने ्अक्षर.  

Friday 17 April 2015

।। मछली की आँखों में ।।

नहीं
मछली का दोष नहीं था
दूषित था भेदक का लक्ष्य
और उससे भी अधिक
उनका निशाना
मछली का घूमते रहना
तय किया उसी ने
दोनों ध्रुवों के बीच
और पलक झपकने की
सजा भी मुकर्रर कर दी
छीन लिया
उससे उसका पानी
उसके आसपास की आबोहवा
और भेद दी उसकी आंखें
स्वंय को साबित करने में!
यह जाने बगैर
कि अनगिनत शैवालों की
परछाइयाँ थी उसमें
सरीसृपों की आभा से भरा
एक दृश्य था
और उस दृश्य की प्रतिच्छाया में
छिपा था एक सत्य
उस सत्य को पहचानने की
शक्ति नहीं थी भेदक की आंखों में
संभव है
मछली भोग रही हो
किसी जन्म का शाप
या लाखों योनियों के शाप से
मुक्त हो रही हो
इस बार मछली आकृति भर नहीं थी
जिसे अर्जुन ने साधा था
भेदक बंधा था
व्याकरणिक कुशलता के घेरे में
वह धार से अलग
बह नहीं सकता था
प्रशिक्षण के सीमित सांचो में ढला वह
असीम अनुभूतियों से परे था
इसलिए मछली की आंखों को
पढ नहीं सकता था. 

सेनोरिटा

सेनोरिटा !

तुम मुझे जानती हो
पर तुम्हें ज़िद है
कि मुझे पहचानते हुए
तुम जानी न जाओ
ज़िद के इस कनात को
सावधानी से तुमने तान रखा है
इस वितान की ओट से
जब भी गुज़र करती हूं मैं
तुम फेर लेती मुँह
पर कनखियों वाली तुम्हारी
नृत्य नाटिका भंगिमा का
भान हो जाता है मुझे
अहम की आंच में
पक न जाए तुम्हारा कच्चापन
सुना तो होगा तुमने भी
सेनोरिटा!
ज्यादा पकना
सड़ जाने का कारण होता है
और इतना तो सब जानते हैं
कि चौबिस घंटे में
कितने अधिकतम मिनटों के घरों को
हम चढ़ा पाते हैं उम्र की सलाईयों पर
और तीन सौ पैंसठ खानों वाले चद्दर को
कितना बुन पाते हैं
महत्वपूर्ण यही रह जाता है!
फिर ये गांठें
आदमखोर टापुओं के सिवा
कुछ भी तो नहीं
सेनोरिटा!
अंत में
तुम्हारे लिए
अपनी आंखों के काजल का
भेजती हूं एक टोटका
इसे कर लेना चस्पां मेरी ओर से
कनबाली के ठीक पीछे
सखी
सुन रही हो न!