सन्नाटे का कोलाहल
जब आवाज थक कर बुझने लगती है
तब शुरू होता है सन्नाटे का कोलाहल
रात की उर्वर जमीं पर
उग आतें हैं असंख्य प्रश्न
जो दिन भर रौंदे जातें हैं सड़कों पर, जुलूसों में
हरेक के अंतर्मन में
तमाम प्रश्न सुनता है वह व्यक्ति
जो गुनता है सन्नाटे को
वह काटता है रात भर
प्रश्नों की फसल
पाने की हसरत में
नींद की थोड़ी सी जमीन
यह व्यक्ति कभी सोता नहीं
न कभी मरता है
हर युग में उग आता है
प्रश्नों के कुकुरमुत्तों के साथ
हर रात मुर्दा निरुत्तर प्रश्न
अंधकार में हो उठते हैं जीवित
जैसे कह रहें हों ढीठ
हमें काटो,चाहे मारो
हम कल फिर आयेंगे
सड़कों पर ,जुलूसों में
हर एक के अंतर्मन में
हम रक्तबीज............ !!!
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1 comment:
VERY NICE POEMS
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