Friday 17 April 2015

सेनोरिटा

सेनोरिटा !

तुम मुझे जानती हो
पर तुम्हें ज़िद है
कि मुझे पहचानते हुए
तुम जानी न जाओ
ज़िद के इस कनात को
सावधानी से तुमने तान रखा है
इस वितान की ओट से
जब भी गुज़र करती हूं मैं
तुम फेर लेती मुँह
पर कनखियों वाली तुम्हारी
नृत्य नाटिका भंगिमा का
भान हो जाता है मुझे
अहम की आंच में
पक न जाए तुम्हारा कच्चापन
सुना तो होगा तुमने भी
सेनोरिटा!
ज्यादा पकना
सड़ जाने का कारण होता है
और इतना तो सब जानते हैं
कि चौबिस घंटे में
कितने अधिकतम मिनटों के घरों को
हम चढ़ा पाते हैं उम्र की सलाईयों पर
और तीन सौ पैंसठ खानों वाले चद्दर को
कितना बुन पाते हैं
महत्वपूर्ण यही रह जाता है!
फिर ये गांठें
आदमखोर टापुओं के सिवा
कुछ भी तो नहीं
सेनोरिटा!
अंत में
तुम्हारे लिए
अपनी आंखों के काजल का
भेजती हूं एक टोटका
इसे कर लेना चस्पां मेरी ओर से
कनबाली के ठीक पीछे
सखी
सुन रही हो न! 

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