(साहित्यिक पत्रिका "वागर्थ" द्वारा पुरस्कृत कविता)
मैं तोड़ती पत्थर
इलाहाबाद क्या,
देख लो
कहीं भी
किसी भी पथ पर
सदियों से तोड़ती आ रही
निरंतर
मैं अकिंचन
दिख गई थी एक कवि को
वर्षों पहले
जिसने अपनी कलम-तूलिका से
किया था मेरे हाव-भाव
और
यौवन को चित्रित
कागज के कैनवास पर
धूप में जलते तन पर
पड़ी स्याही की कुछ बूंदें
पर
न बदल सका मेरा कल
भुला दी गई मैं
अगले ही पल
रची गई कितनी बार मैं
मेरे हालात रचने वाले को
मिलते गए पुरस्कार
पर
मैं आज भी अपने कार्य में रत
जबकि यौवन भी नहीं साथ
बस हथौड़ी लिए कांपते हाथ
बदल-बदल कर पथ
सदियों से निरंतर
अब-भी
मैं तोड़ती पत्थर !
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3 comments:
aapki kavita achchee hai,
achchee abhivayakti..
मत चरागों को हवा दो, बस्तियां जल जाएंगी
ये हवन वो है कि जिसमें उंगलियां जल जाएंगी ।
रात भर सोया नहीं गुलशन यही बस सोचकर,
वो जला तो साथ उसके तितलियां जल जाएंगी ।
उसके बस्ते में जो रक्खी मैंने मजहब की किताब,
वो ये बोला अब्बा मेरी कापियां जल जाएंगी,
आग बाबर की लगाओ या लगाओ राम की,
लग गई तो आयतें, चौपाईयां जल जाएंगी ।
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